तीन पुरुष

 

गीता की शिक्षा, शुरू से अंत तक, अपनी सब दिशाओं में तथा अपने अत्यंत नमनीय मोड़ों के द्वारा एक ही केंद्रीय विचार की ओर मुड़ती है, और यह नाना दार्शनिक संप्रदायों के मतभेदों का हर तरह से संतुलन और सामंजस्य साधित करती हुई तथा अध्यात्म-अनुभूति के सत्यों किंवा प्रकाशों का सावधानतापूर्वक समन्वय करती हुई इसी विचार की ओर अग्रसर हो रही है । उन सत्यों एवं प्रकाशों को जब हम पृथक्-पृथक् लेते हैं तथा उनके आलोक की बाह्य रश्मियों एवं कलाओं का एकांगी रूप से अनुसरण करते हैं तो वे प्रायः परस्पर-विरोधी या, कम-से-कम विभिन्न दिखाई देते हैं, पर यहाँ उन सबको् एकत्र कर समन्वयकारी दृष्टि के एक हीर केंद्र में ग्रथित कर दिया गया है । यह केंद्रीय विचार तीन प्रकार की चेतनाओं का विचार है जो तीन होती हुई भी एक हैं तथा सत्ता की संपूर्ण श्रृंखला में विद्यमान हैं ।

 

इस संसार में एक आत्मसत्ता कार्य कर रही है जो इन अनगिनत दृश्यमान वस्तुओं में एक ही है । वह प्रकृति के असंख्य क्षर भावों में जन्म और कर्म की विकासकर्त्नी है, जीवन को गति देनेवाली शक्ति है, अंतर्यामी और संयोजक चेतना है; देश और काल में यह जितनी भी गति हो रही है इसकी घटक वस्तु-सत्ता वही है; वह स्वयं ही यह देश, काल और घटना है । वही लोक-लोकांतरों में विद्यमान यह जीव-समूह है, वही सब देवता, मनुष्य, प्राणी, पदार्थ, शक्तियां, गुण, परिमाण, विभूतियां और उपस्थितियाँ है । वही प्रकृति है जो आत्मा की एक शक्ति है; वही सब विषय है जो उसके नाम-रूपात्मक तथा भावरूप दृग्विषय हैं; वही सर्वभूत है जो इस अद्वितीय स्वयं-सत् अध्यात्म-सत्ता के, इस एकमेव तथा सनातन के अंश, जन्म तथा भूतभाव हैं । परंतु जिसे हम अपने सामने प्रत्यक्ष रूप में कार्य करते देखते हैं वह यह सनातन तथा इसकी चिन्मय शक्ति नहीं है, बल्कि वह तो प्रकृति है जो अपनी क्रियाओं के अंध आवेग के वश अपने कार्य के अंदर विद्यमान आत्म-सत्ता से अभिज्ञ नहीं है । उसका कार्य यंत्रवत् क्रिया करनेवाले

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१. गीता अध्याय १५

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कुछ एक मूल गुणों तथा शक्ति-तत्त्वों की अस्तव्यस्त, अज्ञानमय एवं सीमाबद्ध क्रीड़ा है और उनके स्थिर या परिवर्तनशील परिणामों की शृंखला है । और उसके कार्य-व्यापार में जो कोई भी जीव बाह्य स्तर पर प्रकट होता है वह स्वयं भी अज्ञानमय, पीड़ित, तथा इस निम्नतर प्रकृति की अपूर्ण एवं असंतोषजनक क्रीड़ा से आबद्ध दिखायी देता है । तथापि प्रकृति की अंतर्निहित सहजात शक्ति जैसी इस प्रकार प्रतीत होती है उससे भिन्न है; क्योंकि, अपने सत्य स्वरूप में गुप्त, पर अपने बाह्य रूपों में प्रकटीभूत वह ऊर्जा क्षर पुरुष एवं विश्वात्मा है, जागतिक प्रपंच और भूतभाव की परिवर्तनशीलता में विद्यमान आत्म-सत्ता है जो अक्षर तथा परम पुरुष के साथ एकीभूत है । हमें प्रकट रूपों के पीछे जाना तथा उनके अंदर छिपे हुए सत्य पर पहुँचना है; हमें इन पर्दों के पीछे विद्यमान आत्मसत्ता को ढूंढ़ निकालना है तथा व्यक्ति, विश्व और परात्पर सभी को उस एकमेव के रूप में देखना है, 'वासुदेव: सर्वमिति ।' परंतु जबतक हम अपरा प्रकृति में निमग्न रहते हैं तबतक इसे आंतरिक सत्य की दृष्टि से पूर्ण-रूपेण कार्य में परिणत करना संभव नहीं । क्योंकि, इस हीनतर गति में प्रकृति अविद्या एवं माया है; वह भगवान् को इसके आवर्तों के अंदर आश्रय देती है और उन्हें अपने-आपसे तथा अपने प्राणियों से छिपाती है । परमेश्वर अपने ही सकल-सृष्टिकारी योग की माया के द्वारा छिपे हुए हैं, वे'नित्य'  अनित्य के रूप में मूर्त्तिमन्त हैं, वे सत्स्वरूप अपने ही अभिव्यक्तिकारी दृश्य-प्रपंच के अंदर लीन तथा उसके द्वारा आच्छादित हैं । यदि क्षर पुरुष को अकेले, अपने स्वतंत्र रूप में लिया जाय, अविभक्त, अक्षर तथा परात्पर पुरुष से पृथक् विश्वगत, क्षर पुरुष के रूप में देखा जाय तो इसमें हमारे ज्ञान तथा सत्ता की पूर्णता नहीं है और अतएव इसमें मुक्ति भी कहाँ !

 

परंतु एक और आत्म-सत्ता भी है जिसका हमें बोध प्राप्त होता है पर जो इन चीजों में से कोई भी नहीं बल्कि आत्मा है और केवल आत्मा ही है । यह आत्मा सनातन है, सदा एकरस है, अभिव्यक्ति के द्वारा कभी परिवर्तित या प्रभावित नहीं होती, एक और स्थिर है, यह स्वयंभू सत्ता है जो विभक्त नहीं है और यहाँ-तक कि प्रकृति के अंदर पदार्थों और शक्तियों के विभाग से आपाततः भी विभाजित नहीं होती, प्रकृति के कर्म में वह निष्क्रिय रहती है तथा उसकी गति में निश्चल । यह सबकी आत्मा है और फिर भी अविचल, तटस्थ और अगोचर, मानों इसपर निर्भर करनेवाली ये सब चीजें अनात्मा हों, इसके अपने ही फल, शक्त्यंश और परिणाम न हों बल्कि एक दृश्य नाटक हों जो कि भाग-न-लेनेवाले अविचल द्रष्टा की आंख के सामने खेला जा रहा है । क्योंकि, इस नाटक में रंगमंच पर प्रकट

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होने तथा भाग लेनेवाला मन तो उस आत्मा से भिन्न वस्तु है जो उदासीन भाव से कर्म को अपने अंदर धारण करती है । यह आत्मा कालातीत है, यद्यपि हम इसे काल के अंदर देखते हैं; यह देश में परिव्याप्त नहीं, यद्यपि हम इसे यों देखते है;  मानों यह देश को व्याप्त किये हुए हो । इसका ज्ञान हम उसी हद तक प्राप्त कर सकते हैं जिस हद तक हम बाहर से हटकर अंदर की ओर जाते हैं अथवा क्रिया और गति के पीछे किसी नित्य और स्थिर वस्तु की ओर दृष्टि डालते हैं। या काल और उसकी सृष्टि से पीछे हटकर असृष्ट की ओर जाते हैं दृश्य प्रपंच से मूल सत् की ओर, वैयक्तिक से निर्व्यक्तिकता की ओर, भूतभाव से अविकार्य स्वयंभू सत् की ओर जाते हैं । यही है अक्षर, क्षर वस्तुओं में अक्षर, सचल वस्तुओं में निश्चल, नश्वर में अविनाशी । अथवा, क्योंकि परिव्याप्ति तो केवल एक प्रतीयमान सत्य है, अत: असल में यूं कहना चाहिये कि क्षर और नश्वर वस्तुओं की सब गति अक्षर, अचल और अविनश्वर सत्ता के अंदर ही हो रही है ।

 

क्षर आत्मा, जो हमें समस्त प्राकृत सत्ता तथा सर्वभूत के रूप में दृष्टिगोचर हो रही है, अचल और सनातन अक्षर में व्यापक रूप से गति और क्रिया करती है । आत्मा की यह गतिशील शक्ति आत्मा की उस मूल स्थिरता के अंदर जड़प्रकृति के दूसरे तत्त्व वायु के रूप में, संयोजन और वियोजन तथा आकर्षण और विकर्षण को स्पर्श-गुणरूपी ऊर्जा के साथ कार्य करती है, तैजस (विकिरणशील, वाष्पीय और वैद्युत ) तथा अन्य पांचभौतिक तत्वों की रचना-शक्ति को आश्रय देती है, आकाश की सूक्ष्म-विशाल स्थिरता में व्यापक रूप से वितत है । यह अक्षर है आत्मा जो कि बुद्धि से उच्चतर है-यह हमारी सत्ता के अंदर प्रकृति के उस उच्च-तम आभ्यंतरिक तत्त्व, अर्थात् मोक्षप्रद बुद्धितत्त्व से भी परे है जिसके द्वारा मनुष्य अपने अस्थिर और चिर-चंचल मनोमय पुरुष से परे अपने शांत और नित्य आत्म-तत्त्व की ओर लौटता हुआ आवागमन से तथा सुदीर्घ कर्मशृंखला से अंतत: छुट-कारा प्राप्त करता है । अपनी उच्चतम अवस्था, 'परं धाम', में यह आत्मा आद्या विश्व-प्रकृति के अव्यक्त तत्त्व से भी परतर, अव्यक्त है और यदि जीव इस अक्षर तत्त्व की ओर मुड़ जाय तो जगत् और प्रकृति का प्रभुत्व उसपर से हट जाता है और वह जन्म से परे अपरिवर्तनशील नित्य जीवन में जा पहुँचता है । इस प्रकार ये दोनों-क्षर और अक्षर--ही दो पुरुष हैं जिन्हें हम इस जगत् मैं देखते हैं;   एक तो इसके कर्म में सामने की ओर प्रकट होता है, दूसरा पीछे की ओर उस शाश्वत शांति में दृढ़ रूप से अवस्थित रहता है जिससे कर्म निःसृत होता है और जिसमें सब कर्म कालातीत सत्ता के अंदर निरुद्ध और विलीन हो जाते हैं, अर्थात् निर्वाण को प्राप्त हो जाते हैं । 'द्वाविमौ पुरुषौ लोके क्षरश्स्चाक्षरएव च ।'

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परंतु जो समस्या हमारी बुद्धि को चक्कर में डाल देती है वह यह है कि ये दोनों ऐसे परस्पर-विरोधी प्रतीत होते हैं कि इनमें किसी प्रकार का मेल नहीं बैठाया जा सकता, इनमें संबंध जोड़नेवाली कोई वास्तविक कड़ी है ही नहीं और इन दो में से एक से दूसरे पर पहुँचने के लिये विच्छेद की ऐकांतिक गति को छोड्कर और कोई साधन ही नहीं है । क्षर अक्षर के अंदर पृथक् रूप से कर्म करता या, कम-से-कम, कर्म का प्रचालन करता है । अक्षर अलग-थलग, आत्म-केंद्रित तथा अपनी निष्क्रियता में क्षर से पृथक् रहता है । प्रथम दृष्टि में प्राय: ऐसा प्रतीत होगा कि यदि हम सांख्यों के साथ एकमत होकर पुरुष और प्रकृति का आदि और सनातन द्वित्व स्वीकार कर लें, तो यह अधिक अच्छा, अधिक युक्ति-संगत तथा अधिक सहजग्राह्य होगा, भले ही हम उनकी तरह जीवों का सनातन बहुत्व न भी मानें । तब हमारा अक्षरसंबंधी अनुभव प्रत्येक 'पुरुष' का केवल अपने अंदर की ओर लौटना होगा, जीवन के संबंधों में उसका प्रकृति से मुंह मोड़ना होगा और फलत: अन्य जीवों के साथ होनेवाले समस्त संबंध से भी पराङ्मुख होना होगा; क्योंकि प्रत्येक ही अपने सारतत्त्व में स्वयं-पर्याप्त, अनंत और पूर्ण है । परंतु आखिरकार, अंतिम अनुभव सब भूतों के एकत्व का होता है जो केवल अनुभव का साम्य नहीं, प्रकृति की एक ही शक्ति के प्रति एकसमान अधीनता नहीं बल्कि आत्मिक एकत्व है, निर्धारण की इस सब अनंत विविधता के परे, सापेक्ष सत्ता की इस समस्त भासमान पृथक्ता के मूल में चिन्मय सत्ता का विराट् एकत्व है । गीता उस सर्वोच्च आध्यात्मिक अनुभूति को अपना आधार बनाती है । नि:संदेह, वह जीवों के एक ऐसे सनातन बहुत्व को स्वीकार करती प्रतीत होती है जो उनके नित्य एकत्व के अधीन तथा उस एकत्व के द्वारा धारित है, क्योंकि सृष्टि सदा से है और अभि-व्यक्ति अंतहीन चक्रों में निरंतर चलती रहती है । गीता में कहीं भी अनंत के अंदर व्यष्टि-जीवन के पूर्ण विलय या विलोप की स्थापना नहीं की गयी और न ही उसमें कही ऐसी भाषा का प्रयोग किया गया है जो जीव के लय को सूचित करती हो । परंतु फिर भी वह प्रबल आग्रह के साथ यह कहती है कि अक्षर इन सब अगणित जीवों का एक आत्मा है, और इसलिए यह स्पष्ट है कि ये दो पुरुष एक ही सनातन और सार्वभौम सत् की द्विविध स्थिति हैं । यह एक अत्यंत प्राचीन सिद्धांत है; यह उपनिषदों की विशालतम दृष्टि का संपूर्ण आधार है,--जैसा कि हम उस प्रकरण में देखते हैं जहाँ ईशोपनिषद् हमें बतलाती है कि ब्रह्म गतिशील और स्थितिशील दोनों है, वह एक और बहु है, आत्मा और सर्वभूत है, 'आत्मन्, सर्व-भूतानि', विद्या और अविद्या है, नित्य अज स्थिति भी है और सब भूतों का जन्म  ( संभूति ) भी है, और यह भी बताती है कि इन चीजों में से किसी एक में ही रत

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रहना तथा उसके शाश्वत प्रतिरूप का परित्याग कर देना एकांगी ज्ञान का अंधकार या अज्ञान का अंधकार है । वह भी गीता की तरह बलपूर्वक कहती है कि अमृतत्व का उपभोग करने तथा शाश्वत में निवास करने के लिए यह आवश्यक है कि मनुष्य दोनों को जाने तथा दोनों को अपनाये और परम देव का उसके सभी रूपों में ज्ञान प्राप्त करे, 'समग्रं माम', जैसा कि गीता में कहा गया है । यहाँतक गीता की शिक्षा उपनिषदों की शिक्षा के उक्त पहलू से अभिन्न है; क्योंकि ये सद्वस्तु के दोनों पक्षों पर दृष्टि डालती और उन्हें अंगीकार करती है और फिर भी दोनों सिद्धांतरूप में तथा सत्ता के सर्वोच्च सत्य के रूप में एकत्व पर पहुँचती हैं ।

 

पर यह महत्तर ज्ञान एवं अनुभव हमारी उच्चतम दृष्टि को प्रभावित करने में कितना ही सच्चा और कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो, फिर भी इसे एक अत्यंत वास्तविक एवं गुरुतर समस्या से, एक व्यावहारिक तथा यौक्तिक विरोध से छुटकारा पाना है जो प्रथम दृष्टि में ऐसा प्रतीत होता है कि अध्यात्म-अनुभव के उच्चतम शिखरों तक डटे रहनेवाला है । सनातन पुरुष इस गतिशील आंतर एवं बाह्य अनुभव से भिन्न है, एक अधिक महान् चैतन्य है, 'न इद्ं यद् उपासते'  परन्तु इसके साथ-साथ यह भी सत्य है कि यह सब वह 'सनातन', है, आत्मा का शाश्वत आत्म-दर्शन है, 'सर्व खलु इवं अयमात्मा ब्रह्य '  उस सनातन ने ही सर्व भूतों का रूप धारण किया है, 'आत्मा अभूत् सर्वभूतानि;'  जैसा कि श्वताश्वतर में कहा गया है, ''तू यह कुमार और वह कुमारी है और तू ही वह वृद्ध पुरुष है जो अपनी लाठी के सहारे चलता है" ,--और जैसा कि गीता में भी भगवान् कहते हैं कि वे कृष्ण, अर्जुन, व्यास और उशनस् हैं,  सिंह और अश्वत्थ वृक्ष हैं, सब जीवों की चेतना एवं प्रज्ञा हैं, उनके सब गुण और अंतरात्मा हैं । परन्तु ये दोनों पुरुष भला एक कैसे हैं, जब कि केवल यही नहीं प्रतीत होता कि वे प्रकृति में इतने विपरीत हैं, बल्कि यह भी प्रतीत होता है कि अनुभव में उन्हें एक करना भी अतीव कठिन है ? क्योंकि, जब हम भूतभाव की सचलता में निवास करते हैं तब हम कालातीत स्वयंभू सत्ता के अमृतत्व से सज्ञान भले ही हों, पर उसमें निवास कदाचित् ही करते हैं । और जब हम अपनेको कालातीत सत् के अंदर सुप्रतिष्ठित कर लेते हैं तब देश, काल और घटना-सभी हमसे झड़कर दूर हो जाते हैं और अनंत में एक विक्षुब्ध स्वप्न प्रतीत होने लगते हैं । अतएव,

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१. केन उपनिषत् ।

२. माण्डुक्य उपनिषत् : निश्चय ही यहां जो कुछ भी है वह सब ब्रह्य है, और आत्मा ब्रह्य है ।

३. ईश उपनिषत् ।

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प्रथम दृष्टि में, सर्वाधिक हृदयग्राही सिद्धांत यह प्रतीत होगा कि प्रकृति के अंदर आत्मा की सचलता एक भ्रम है, एक ऐसी चीज है जो केवल तभी तक सत्य है जबतक हम इसमें निवास करते हैं पर जो परमार्थतः सत्य नहीं है, और यही कारण है कि जब हम आत्मा के अंदर लौटते हैं, यह हमारे अविकार्य मूलतत्त्व से झड़कर अलग हो जाती है । इस पहेली का प्रसिद्ध समाधान यही है, 'ब्रह्य सत्यं जगन्भिथ्या ।'

 

गीता इस समाधान का आश्रय नहीं लेती, क्योंकि उक्त भ्रम की व्याख्या करने में असमर्थता के अतिरिक्त इसकी अपनी और भी गुरुतर कठिनाइयाँ हैं,-- यह समाधान तो इतना ही कहता है कि यह सब रहस्यमय और अगम माया है, और उसी प्रकार हम यह भी कह सकते हैं कि यह सब रहस्यमय और अगम युगल सद्धस्तु है, आत्मा अपनेको आत्मा से छिपाये हुई है । गीता भी माया की चर्चा करती है, पर केवल इस रूप में कि वह एक भ्रमोत्पादक खण्ड-चेतना है जो पूर्ण सद्वस्तु को ग्रहण नहीं कर पाती तथा सचल प्रकृति के प्रपंच में निवास करती है और जिस परम आत्मा की यह सक्रिय शक्ति है, 'मे प्रकृति:', उसका इसे कुछ भी आभास नहीं । जब हम इस माया को पार कर जाते हैं तो यह जगत् लुप्त नहीं हो जाता, बल्कि केवल इसके अर्थ का संपूर्ण हार्द बदल जाता है । आध्यात्मिक दृष्टि में हमें जो कुछ पता चलता है वह यह नहीं कि इस सब जगत् का कोई वास्तविक अस्तित्व नहीं है, बल्कि इस सबका अस्तित्व तो है, पर इसके वर्तमान भ्रांत अर्थ से भिन्न, इसका एक दूसरा ही आशय है: सब कुछ ही भगवान् है, आत्मा है, उसीकी जीव-सत्ता और उसीकी प्रकृति है, सब ही वासुदेव है । गीता के लिए यह जगत् वास्तविक है, ईश्वर की सृष्टि, सनातन की शक्ति तथा परब्रह्म की अभिव्यक्ति है, और यहाँतक कि त्रिगुणमयी माया की यह निम्नतर प्रकृति भी परा दैवी प्रकृति से उद्भूत हुई है । न ही हम पूर्ण रूप से इस विभेद की शरण ले सकते हैं कि सद्धस्तु द्विविध है, एक तो हीनतर, सक्रिय और अनित्य और दूसरी कर्म से अतीत, उच्चतर, शांत, स्थिर और शाश्वत, और इस आंशिक वस्तु से उस वृहत् वस्तु की ओर, कर्म से निश्चल-नीरवता की ओर चले जाना ही हमारी मुक्ति है । कारण, गीता आग्रहपूर्वक कहती है कि हम अपने जीवन-काल में ही आत्मा तथा उसकी नीरवता में सचेतन रूप से रह सकते हैं और फिर भी प्रकृति के जगत् में शक्तिशाली रूप से कार्य कर सकते हैं एवं हमें इस प्रकार रहना तथा करना भी चाहिए । और, वह स्वयं भगवान् का दृष्टांत देती है जो जन्म की अनिवार्यता से बँधे नहीं हैं, बल्कि स्वतंत्र हैं तथा सृष्ष्टि से उच्चतर हैं और फिर भी नित्य-निरंतर कर्म में रत रहते हैं, 'र्त एव च कर्मणि ।' अतएव

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दैवी प्रकृति के साथ पूर्णरूपेण साधर्म्य लाभ करने से ही इस द्विविध अनुभव की एकता पूर्ण रूप से प्राप्त हो सकती है । परन्तु उस एकता का मूल सूत्र क्या है ?

 

गीता को यह सूत्र पुरुषोत्तम-विषयक अपनी परमोच्च दृष्टि में प्राप्त हुआ है; क्योंकि उसके मत में यही पूर्ण और सर्वोच्च कोटि का अनुभव है, यह पूर्ण ज्ञानी लोगों का, 'कृत्स्नविद:' का ज्ञान है । अक्षर पर हैं, विश्व-प्रकृति की सभी वस्तुओं तथा समस्त कर्म के संबंध से वे परमोच्च सत्ता हैं । वे सबके अक्षर आत्मा हैं और सबके अक्षर आत्मा हैं पुरुषोत्तम । उनकी अपनी प्रकृतिगत शक्ति के कर्म से अप्रभावित, उनकी अपनी संभूति की प्रेरणा से अक्षत, उनके अपने गुणों की क्रीड़ा से अविचलित उनकी जो स्वयंस्थित सत्ता है उसकी स्वतंत्रता में वे (पुरुषोत्तम ) अक्षर हैं । पर यह तो समग्र ज्ञान का केवल एक ही पहलू है, यद्यपि है एक महान् पहलू । इसके साथ ही पुरुषोत्तम अक्षर से भी अधिक महान् हैं, क्योंकि वे इस अक्षर भाव से अधिक कुछ हैं और वे अपनी सत्ता के सर्वोच्च नित्य धाम, 'परं धाम'  के द्वारा भी परिसीमित नहीं हैं । तो भी, हमा रे अंदर जो कोई अक्षर एवं नित्य तत्व है उसीके द्वारा हम उस सर्वोच्च धाम को प्राप्त करते हैं जहाँ से पुन: जन्म लेने के लिए नहीं लौटना पड़ता, और यही वह मोक्ष था जिसे पुराकाल के ज्ञानिजन एवं प्राचीन ऋषि-मुनि खोजा करते थे । परन्तु जब केवल अक्षर के, द्वारा मोक्ष की प्राप्ति के लिए यत्न किया जाता है तो वह यत्न अनिर्द्देश्य की खोज का रूप धारण कर लेता है, जो कि हमारी प्रकृति के लिए एक कठिन कार्य है, क्योंकि हम यहाँ जड़प्रकृति में देह धारण किये हूए हैं । वह अनिर्द्देश्य जिसकी ओर अक्षर, अर्थात् यहाँ हमारे अंदर विराजमान शुद्ध अगोचर आत्मा वैराग्य के आवेग के साथ ऊपर उठती है, कोई परम अव्यक्त सत्ता है, 'परोऽव्यक्त: ', और वह उच्चतम अव्यक्त अक्षर भी पुरुषोत्तम है । इसलिए गीता ने कहा है कि जो लोग अनिर्द्देश्य का अनुसरण करते हैं वे भी मुझे, सनातन परमेश्वर को प्राप्त करते हैं । किन्तु फिर भी वे उच्चतम अव्यक्त अक्षर से भी अधिक हैं, किसी भी निषेधात्मक निरपेक्ष तत्व, 'नेति, नेति' से अधिक हैं, क्योंकि उन्हें उन उत्तम पुरुष के रूप में भी जानना होगा जो इस संपूर्ण ब्रह्माण्ड को अपनी ही सत्ता के अंदर विस्तारित करते हैं । वे परम रहस्यमय सर्व हैं, यहाँकी सब वस्तुओं के मूलभूत अनिर्वचनीय निरपेक्ष सत् हैं । वे क्षर में विद्यमान ईश्वर हैं, केवल वहीं नहीं, बल्कि यहाँ प्रत्येक प्राणी के हृदय में विराजमान पुरुषोत्तम हैं, ईश्वर हैं । और वहाँ अपने नित्य परम पद, 'परो अव्यक्त:' में भी वे परमेश्वर हैं, विविक्त और संबंध-रहित अनिर्द्देश्य नहीं, बल्कि जीव और जगत् के उद्गम, माता-पिता, आदि मूल तथा नित्य आश्रय हैं, सर्वभूतों के स्वामी तथा यज्ञ और

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तप के भोक्ता हैं । उन्हें अक्षर और क्षर दोनों रूपों में एक साथ जानकर, उन अजन्मा के रूप में जानकर जो प्राणिमात्र के जन्म में अपनेको अंशत: प्रकट करते हैं और यहाँतक कि स्वयं भी शाश्वत अवतार के रूप में अवतीर्ण होते हैं,  उन्हें उनके समग्र रूप में, 'समग्रं माम्', जानकर ही जीव निम्नतर प्रकृति के बाह्य रूपों से सुगमतया मुक्त हो सकता है तथा एक वृहत् आकस्मिक विकास एवं विशाल अपरिमेय आरोहण के द्वारा दिव्य सत् और पराप्रकृति में लौट सकता है । क्योंकि क्षर का सत्य भी पुरुषोत्तम का सत्य है । पुरुषोत्तम प्रत्येक प्राणी के हृदय में हैं और अपनी अगणित विभूतियों में प्रकट हुए हैं; पुरुषोत्तम काल के अंदर विश्वात्मा हैं और वही मुक्त मानव आत्मा को दिव्य कर्म का आदेश देते हैं । वे अक्षर और क्षर दोनों हैं,  और फिर भी वे इनसे भिन्न है; क्योंकि वे इन विपरीत रूपों में से प्रत्येक से अधिक और महत्तर हैं । 'उत्तम: पुरुषस्त्वन्य: परमात्मेत्यु- दाहृत: । यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वर: ।'  ''परन्तु वे उत्तम पुरुष इन दोनों से भिन्न हैं, वे परमात्मा के नाम से प्रसिद्ध हैं, वे अव्यय ईश्वर हैं और तीनों लोकों में प्रविष्ट होकर उन्हें धारण करते है ।''  यह श्लोक हमारी सत्ता के इन दो आपात-विरोधी पक्षों के गीताकृत समन्वय की कुंजी है ।

 

पुरुषोत्तमसंबंधी विचार की भूमिका बाँधी जा चुकी है, इसकी ओर संकेत किया जा चुका है, इसका आभास दिया जा चुका है, यहाँतक कि इसे आरंभ से ही मान लिया गया है, पर इसका स्पष्ट वर्णन तो अब जाकर पन्द्रहवें अध्याय में ही किया गया है और अब ही इसे एक नाम देकर पुरुषत्रय के भेद पर प्रकाश डाला गया है । और फिर अगले ही क्षण किस प्रकार इस विषय में प्रवेश करके इसका विकास किया गया है यह देखना बोधदायक होगा । हमें बताया जा चुका है कि दैवी प्रकृति में आरोहण करने के लिए सर्वप्रथम हमे अपने-आपको पूर्ण आध्यात्मिक समता में प्रतिष्ठित करना होगा तथा त्निगुणात्मिका निम्नतर प्रकृति से ऊपर उठना होगा । इस प्रकार निम्नतर प्रकृति को पार कर हम निर्व्यक्तिकता में सुप्रतिष्ठित हो जाते हैं, कर्ममात्र से ऊपर उठकर अविचल स्थिति लाभ कर लेते हैं, त्निगुण द्वारा उत्पन्न समस्त सीमा और परिच्छिन्नता से मुक्त हो जातै हैं, यह स्थिति पुरुषोत्तम की व्यक्त प्रकृति का एक पार्श्व है, आत्मा की नित्यता एवं एकता तथा अक्षर-सत्ता के रूप में उनकी अभिव्यक्ति है । परन्तु जीव की अभिव्यक्ति के आदि. रहस्य के पीछे पुरुषोत्तम का एक अनिर्वचनीय नित्य बहुत्व, एक परमोच्च सत्यतम सत्य भी है । अनंत भगवान् में एक सनातन शक्ति है, अपनी दिव्य प्रकृति का एक अनाद्यनन्त कर्म-प्रवाह है और उस कर्म-

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१. १५, १७

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प्रवाह में निर्व्यक्तिक दीखनेवाली शक्तियों की क्रीड़ा से जीव-व्यक्तित्वरूपी आश्चर्य प्रकट होता है, 'प्रकृतिजौंवभूता ।' इस आश्चर्य के संभव होने का कारण यह है कि व्यक्तित्व भी भगवान् का ही एक रूप है और वह अनंत में अपना सर्वोच्च आध्यात्मिक सत्य एवं सार्थकता प्राप्त करता है । परन्तु अनंत के भीतर स्थित 'व्यक्ति'  निम्नतर प्रकृति का अहमात्मक, भेदमूलक, विस्मृतिपूर्ण व्यक्तित्व नहीं है; वह तो एक उदात्त, विश्वमय और विश्वातीत, अमर और दिव्य सत्ता है । उन परम पुरुष का यह रहस्य ही प्रेम और भक्ति का गुप्त मर्म है । हमारा अंतरस्थ आध्यात्मिक पुरुष, नित्य जीवात्मा अपने-आपको तथा उसके पास जो कुछ भी है और वह स्वयं जो कुछ है उस सबको उन शाश्वत भगवान्, परम पुरुष एवं परमेश्वर के प्रति अर्पित कर देता है जिनका कि वह अंश है । इस आत्म- दान में ही, अपने व्यक्तित्व तथा इसके कर्मों के अनिर्वचनीय प्रभु के प्रति प्रेम और भक्ति के द्वारा अपनी वैयक्तिक प्रकृति को इस प्रकार ऊपर उठा ले जाने में ही ज्ञान अपनी पूर्णता लाभ करता है; कर्मों का यज्ञ इसके द्वारा अपनी सिद्धि और पूर्ण अनुमति प्राप्त करता है । सो, इन चीजों के द्वारा ही मनुष्य की आत्मा इस अन्य शक्तिशाली क्रियाशील रहस्य में, दिव्य प्रकृति के इस अन्य महान् एवं अंतरीय अंग में अपनी पूर्णतम चरितार्थता प्राप्त करती है और उस पूर्णता के द्वारा अमृतत्व, परम सुख एवं शाश्वत धर्म का आधार उपलब्ध करती है । और, इस प्रकार गीता ने पहले तो एकमेव आत्मा में समता तथा एकमेव परमेश्वर की आराधना इन दो आवश्यक साधनों का पृथक्-पृथक् प्रतिपादन किया है मानों ये ब्राह्मी स्थिति को प्राप्त करने के, 'बह्यभूयाय', दो भिन्न-भिन्न साधन हों,--एक तो निवृत्तिमार्गी संन्यास का मार्ग हो और दूसरा दिव्य प्रेम एवं दिव्य कर्म का । परन्तु इसका प्रतिपादन करने के बाद अब गीता सव्यक्तिक और निर्व्यक्तिक को पुरुषोत्तम में एकीभूत करने तथा उनके संबंधों का निरूपण करने की ओर अग्रसर होती है । क्योंकि गीता का लक्ष्य एकांगी भावों तथा भेदजनक अति-रंजनाओ से मुक्त होना तथा ज्ञान एवं आध्यात्मिक अनुभव के इन दो पक्षों को धूला-मिलाकर परम सिद्धि के एक ही पूर्ण पथ में परिणत कर देना है ।

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यहाँ सबसे पहले गीता अश्वत्थ वृक्ष के वैदांतिक रूपक की भाषा में जगत् का वर्णन करती है । जागतिक सत्ता के इस वृक्ष का देश या काल में कोई आदि और अंत नहीं है, 'नान्तो न चादि:'; क्योंकि यह शाश्वत, अव्यय एवं अविनाशी है । इसका वास्तविक स्वरूप हम  नर-देहधारियों के इस जड़ जगत् में नहीं देख सकते, और न ही यहां इसका कोई स्थायी मूल दिखायी देता है; यह एक अनंत गति है और इसका आधार ऊपर अनंत के परम धाम में है । इसका

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मूल तत्त्व है कर्म करने की पुरातन और अनंत प्रवृत्ति, जो समस्त सत्ता के आद्य पुरुष से अनाद्यनंत रूप में सदैव निःसृत होती रहती है, 'आद्यं पुरुषं.... यत: प्रवृत्ति: प्रसृता पुराणी ।'  इसलिए इसका मूल उद्गम ऊपर काल से परे उन अनंत में है, पर इसकी शाखाएँ नीचे की ओर फैली हुई हैं और यह अपनी अन्य जड़ें, आसक्ति और कामना की सुदृढ़ और दुश्च्चेद्य जड़ें, जिनके परिणाम-स्वरूप अधिकाधिक कामना तथा अनंत-विस्तारशील कर्म-प्रपंच उत्पन्न होता है, यहाँ मनुष्यों के जगत् में विस्तारित करता है तथा नीचे की ओर गहरी जमाता है । वेद के छंदों को इसके पत्तों से उपमा दी गयी है और जो मनुष्य सृष्टि के इस वृक्ष को जानता है उसे बेदविद् कहा गया है । और, वेद या कम-से-कम वेदवाद के संबंध में जो किंचित् निंदात्मक विचार हम पहले देख आये हैं उसका आशय हमें यहाँ समझ में आ जाता है । क्योंकि वेद हमें जो ज्ञान प्रदान करता है वह देवताओं तथा सृष्टि के मूल तत्त्वों एवं शक्तियों का ज्ञान है, और इसके फल काम्य, अर्थात् कामनापूर्वक किये जानेवाले यज्ञ के फल हैं,  तीन लोकों की, भूलोक, द्युलोक तथा अंतरिक्षलोक की प्रकृति में उपभोग एवं प्रभुत्वरूपी फल हैं, । इस संसार-तरु की शाखाएँ नीचे और ऊपर दोनों ओर फैली हुई हैं, नीचे भूलोक में तथा ऊपर अतिभौतिक लोकों में; वे प्रकृति के गुणों के सहारे फलती-फूलती हैं, क्योंकि केवल त्रिगुण ही वेदों का संपूर्ण विषय है, 'त्रैगुण्यविषया वेदा: ।'  वेद के छंद, -छंदांसि,' पत्ते हैं तथा सब इंद्रियभोग्य विषय, जो यथाविधि यज्ञ करने से सर्वोत्तम रूप में प्राप्त होते हैं निरंतर प्रस्कुटित होनेवाले पल्लव हैं । अतएव, जबतक मनुष्य गुणों की क्रीड़ा का उपभोग करता है तथा कामनाओं में लिप्त है तबतक वह प्रवृत्ति के चक्रों में, जन्म और कर्म के प्रवाह में फँसा हुआ है, वह निरंतर भूलोक, मध्य के लोकों तथा स्वर्ग-लोकों के बीच चक्कर काटता रहता है तथा अपनी परमोच्च आध्यात्मिक अनंतताओं की ओर लौटने में समर्थ नहीं होता । प्राचीन ऋषियों ने इस बात को अनुभव कर लिया था । अतएव, वे मोक्ष की प्राप्ति के लिए निवृत्ति या कर्म की मूल प्रेरणा के निरोध के मार्ग का अनुसरण करते थे और इस मार्ग की पराकाष्ठा है स्वयं जन्म का ही निरोध तथा सनातन की सर्वोच्च विश्वातीत भूमिका में परात्पर पद की प्राप्ति । परन्तु इसके लिए अनासक्ति के प्रबल खड्ग से कामना की इन सुदृढ़ जड़ों को काटना और फिर उस परम लक्ष्य की खोज करना आवश्यक है जहाँसे, एक बार वहाँ पहुँच जाने के बाद, पुन: मर्त्य जीवन में लौटना नहीं पड़ता । इस निम्नतर माया के व्यामोह से मुक्त होनाअहं से रहित होना, आसक्ति के महान् दोष को जीतना, सब कामनाओं को शांत करना, हर्ष-शोक के द्वंद्व को दूर हटा देना, सदैव शुद्ध अध्यात्म-चेतना में प्रतिष्ठित

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रहना-यही उन परम अनंत की ओर जानेवाले पथ के सोपान हैं । वहाँ हमें उस कालातीत सत्ता की उपलब्धि होती है जो सूर्य, चन्द्र या अग्नि के द्वारा प्रकाश-मान नहीं होती, बल्कि जो स्वयं ही सनातन पुरुष की उपस्थिति की ज्योति है । वेदांत के एक श्लोक में कहा गया है कि मैं केवल उन आद्य जगदात्मा को ही खोजने तथा महान् पथ पर उन्हें प्राप्त करने के लिए इधर से फिरकर उनकी ओर अभिमुख होता हूँ । वह पुरुषोत्तम का परम पद है, उनकी विश्वातीत सत्ता है ।

 

परन्तु ऐसा प्रतीत होगा कि यह परम पद संन्यासमार्गीय निवृत्ति के द्वारा सम्यक् रूप से, यहाँतक कि सर्वोत्तम रीति से, विशिष्ट और साक्षात् रूप से, प्राप्त किया जा सकता है । इसकी प्राप्ति का नियत पथ अक्षर का मार्ग, अर्थात् कर्म और जीवन के पूर्ण त्याग, संन्यासी के एकांतवास, संन्यासी की निष्क्रियता का मार्ग प्रतीत होगा । यहाँ कर्म के आदेश के लिए अवकाश ही कहाँ है, अथवा कम-से-कम उसके लिए पुकार एवं आवश्यकता ही कहाँ है, और इस सबके साथ लोकसंग्रह, कुरुक्षेत्र का संहार, कालपुरुष की गतिविधि, कोटि-कोटि-देहधारी ईश्वर के दर्शन तथा उनका जलद-गंभीर आदेश, --  " उठ, शत्रु का वध कर तथा समृद्ध राज्य का उपभोग कर" --इन सबका संबंध ही क्या है ? और फिर यह प्रकृतिगत पुरुष कौन है ? यह पुरुष भी, यह क्षर, हमारी परिवर्तनशील सत्ता का यह भोक्ता भी पुरुषोत्तम ही है,; गीता उत्तर देती है कि अपने सनातन बहुत्व में विद्यमान पुरुषोत्तम ही क्षर हैं । ''मेरा एक सनातन अंश ही जीवों के जगत् में जीव बनता है ।''  यह एक ऐसा विशेषण एवं कथन है जो एक अत्यंत गुरुतर अर्थ एवं महत्त्व रखता है । क्योंकि इसका अर्थ है कि प्रत्येक जीव, प्रत्येक व्यष्टि-पुरुष अपने आध्यात्मिक सत्स्वरूप में साक्षात् भगवान् ही है, भले ही प्रकृति के अंदर वह वस्तुत: उन्हें कितने ही आंशिक रूप में क्यों न प्रकट करता हो । और, यदि शब्दों का कुछ अर्थ है तो, इसका यह भी अर्थ है कि प्रकट होनेवाली प्रत्येक आत्मा, बहु में से हरएक, सनातन व्यष्टि है, एकं सत् की नित्य अजन्मा अमर शक्ति है । प्रकट होनेवाली इस आत्मा को हम जीव कहते हैं क्योंकि यहाँ सजीव प्राणियों के जगत् में यह ऐसा प्रतीत होती है जैसे यह एक सजीव प्राणी हो, और मनुष्य में अवस्थित इस आत्मा को हम मानव जीव कहते हैं और इसके विषय में केवल मानवता की परिभाषा में ही सोचते हैं । परन्तु वास्तव में यह अपनी वर्तमान प्रतीति से अधिक महान् कोई वस्तु है तथा अपनी मानवता से आबद्ध नहीं है : अपने अतीत में यह मानव से भी

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१. ११, ३३

२. १५,

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अवर अभिव्यक्ति थी, अपने भविष्य में यह मनोमय मनुष्य से भी अत्यधिक महान् वस्तु बन सकती है । और, जब यह जीव सब अज्ञानमय सीमाओं से ऊपर उठ जायगा तब यह अपनी दिव्य प्रकृति धारण कर लेगा जिसका कि इसकी मानवता केवल एक अस्थायी पर्दा है, आंशिक एवं अपूर्ण अर्थवाली वस्तु है । व्यष्टिगत आत्मा इस लोक के परे सनातन के अंदर विद्यमान है और सदा ही विद्यमान थी, क्योंकि वह स्वयं भी सनातन है । स्पष्टत:, जीव की सनातनता के इस विचार से प्रेरित होकर ही गीता ने ऐसे किसी भी शब्द का प्रयोग नहीं किया है जो पूर्ण लय की ओर जरा भी संकेत करता हो, बल्कि उसने पुरुषोत्तम के अंदर निवास करने को ही जीव की सर्वोच्च स्थिति बताया है, 'निवसिष्यसि मय्येव ।'  यद्यपि 'सबके एक आत्मा'  के विषय में कहती हुई वह अद्वैत की भाषा का प्रयोग करती दिखायी देती है, तो भी सनातन व्यष्टि का यह नित्य सत्य, 'ममांश: सनातन:', एक और चीज को जोड़ देता है, एक विशेषण लगा देता है और वह विशेषण प्रायः विशिष्टाद्वैत की दृष्टि को ही स्वीकार करता प्रतीत होता है,--यद्यपि इसके आधार पर हमें एकदम यह परिणाम नहीं निकाल लेना चाहिए कि गीता का दर्शन बस यही कुछ है या उसकी शिक्षा रामानुज के परवर्ती सिद्धांत के सर्वथा समान है । फिर भी इतना तो स्पष्ट है कि एकमेव भागवत सत् की आध्यात्मिक सत्ता में बहुत्व का एक शाश्वत, केवल भ्रमात्मक ही नहीं, बल्कि एक वास्तविक तत्त्व विद्यमान है ।

 

यह सनातन व्यष्टि भागवत पुरुष से इतर नहीं है, न यह उससे किसी प्रकार वस्तुत : पृथक् ही है । यह साक्षात् ईश्वर ही है जो अपने एकत्व के सनातन बहुत्व के द्वारा--क्या समस्त सत्ता अनंत के इस सत्य की ही अभिव्यक्ति नहीं है ? --हमारे अंदर अविनाशी जीव के रूप में सदा विद्यमान रहते हैं और जिन्होंने यह शरीर धारण किया है तथा जब यह नश्वर ढाँचा प्रकृति के तत्त्वों में विलीन होने के लिए उतार फेंका जाता है तो इससे बाहर निकल जाते हैं । वे मन तथा इंद्रियों के विषयों के उपभोग के लिए प्रकृति की आभ्यन्तरिक शक्तियों, मन और पाँच इंद्रियों को अपने साथ लाते तथा विकसित करते हैं, और अपने बाहर निकलने के समय भी वे उन्हें साथ लेकर जाते हैं जैसे वायु किसी पुष्प-पात्र से सुरभि-गंधों को लेती जाती है । परन्तु ईश्वर तथा क्षर-प्रकृतिस्थ जीव की एकात्मता बाह्य प्रतीति के कारण हमसे छिपी हुई है तथा क्षर प्रकृति की चल छलनाओं की भारी भरमार में खो गयी है । और, जो लोग अपने-आपको प्रकृति के रूपों, मानवता के रूप या किसी अन्य रूप के द्वारा परिचालित होने देते हैं वे इस एकत्व को कभी नहीं देख पायेंगे, बल्कि मानव-तनु में अवस्थित

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भगवान् की अवज्ञा और अवहेलना ही करेंगे । उनका अज्ञान भगवान् को उनके प्रविष्ट होने तथा बाहर निकलने या स्थित रहने तथा भोग करने एवं गुणों को धारण करने में अनुभव नहीं कर सकता, बल्कि उनमें वह (अज्ञान ) केवल वही चीज देखता है जो मन और इंद्रियों के लिए गोचर होती है, उस महत्तर सत्य को नहीं देखता जिसकी झाँकी केवल ज्ञान-चक्षु के द्वारा ही प्राप्त हो सकती है । ऐसे लोग उनकी झलक पाने का यत्न भले ही करें तो भी वे उसे तबतक कदापि नहीं पा सकते जबतक वे बाह्य चेतना की सीमाओं को दूर करना न जान लें और अपने अंदर अपनी अध्यात्मसत्ता गठित न कर लें, मानों उसके लिए अपनी प्रकृति के अंदर एक रूप ही निर्मित न कर ले । अपने-आपको जानने के लिए मनुष्य को 'कृतात्मा' बनना होगा, अर्थात् उसे अपने आध्यात्मिक साँचे में गठित एवं पूर्ण तथा अध्यात्म-दृष्टि में उद्दीप्त बनना होगा । ज्ञानदृष्टि से संपन्न योगिजन अपने अनंत सत्स्वरूप में, अपनी आत्मा की शाश्वतता में हमारे वास्तविक स्वरूप भागवत पुरुष के दर्शन करते हैं । ज्ञान से दीप्त होकर वे अपने अंदर प्रभु का साक्षात्कार करते हैं और स्थूल जड़प्राकृतिक सीमा से, मानसिक व्यक्तित्व के रूप तथा नश्वर प्राणिक रचना से मुक्त हो जाते हैं; वे आत्मा और अध्यात्म-सत्ता के सत्य में अमर होकर निवास करते हैं । परन्तु वे केवल अपने अंदर ही नहीं, बल्कि समस्त सृष्टि में भी उनके दर्शन करते हैं । इस संपूर्ण संसार को उद्धासित करनेवाले सूर्य के तेज में वे हमारे अंदर बसनेवाले भगवान् का ही तेज देखते हैं; क्योंकि चंद्रमा और अग्नि में जो तेज है वह भगवान् का ही तेज है । वे भगवान् ही पृथ्वी के इस रूप के अंदर अनुप्रविष्ट हैं, वे ही इसकी जड़प्राकृतिक शक्ति की आत्मा हैं और अपने सामर्थ्य के द्वारा इन अनेकानेक भूतों का धारण-भरण करते हैं । भगवान् ही सोम देवता हैं, जो, पृथ्वी-माता के रस के द्वारा, उसे शस्य-श्यामल करनेवाली वृक्ष-वनस्पतियों का पोषण करते हैं । भगवान् ही, अन्य कोई नहीं, :वह प्राणाग्नि है जो जीवधारी प्राणियों की स्थूल देह को धारण करती है और इसके आहार को उनकी प्राणशक्ति करा पोषक रस बना देती है । वे प्रत्येक प्राणधारी सत्ता के हृदय में आसीन हैं; उन्हींसे स्मृति, ज्ञान तथा तार्किक वाद-विवाद उद्भूत होते हैं । सब वेदों तथा सब प्रकार के ज्ञानों के द्वारा ज्ञेय वे ही हैं; वे वेदवित् तथा वेदांत के कर्ता हैं । दूसरे शब्दों में, भगवान् एक ही साथ जड़तत्त्व की आत्मा; प्राण की आत्मा, मन की आत्मा हैं तथा उस अति-मानसिक ज्योति की भी आत्मा हैं जो मन और इसकी संकीर्ण तर्कबुद्धि से परे है ।

 

इस प्रकार भगवान् अपनी रहस्यमय युगल आत्मा में, अपनी द्विविध शक्ति में प्रकटीभूत हैं, 'द्वायिमौ पुरुषौ' ;  वे एक साथ ही क्षर वस्तुओं की उस आत्मा

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को धारण करते हैं जिससे ये सर्वभूत निर्मित हुए हैं, 'क्षर: सर्वाणि भूतानि', तथा उस अक्षर आत्मा को भी धारण करते हैं जो सर्वभूतों के ऊपर उनकी शाश्वत नीरवता और स्थिरता की अक्षुब्ध अचलता में स्थित रहती है । और इनके अंदर विद्यमान भागवत शक्ति के कारण ही मनुष्य के मन, हृदय और संकल्प-शक्ति इन दो आत्माओं के द्वारा विभिन्न दिशाओं में इतनी प्रबलता के साथ खींचे जाते हैं मानों ऐसे दो विरोधी एवं विसंगत आकर्षणों के द्वारा खींचे जा रहे हों जिनमें से प्रत्येक दूसरेको विनष्ट करने पर तुला हुआ है । परन्तु भगवान् न तो पूर्ण रूप से क्षर है और न पूर्ण रूप से अक्षर ही हैं । वे अक्षर पुरुष से महान् हैं और परिवर्तनशील वस्तु-समूह की आत्मा से भी अत्यधिक महान् हैं । यदि वे एक साथ दोनों अवस्थाओं में रहने की सामर्थ्य रखते हैं तो इसका कारण यह है कि वे दोनों से अन्य हैं, 'अन्य:', समस्त सृष्टि के ऊपर अवस्थित पुरुषोत्तम हैं और फिर भी इस जगत् में फैले हुए हैं और साथ ही, वेद, आत्म-ज्ञान तथा विश्वानुभूति में भी व्यापे हुए हैं | जो कोई भी उन्हें इस प्रकार पुरुषोत्तम के रूप में जानता तथा देखता है, वह फिर जगत् के दृश्य रूप से या इन दो आपात-विरोधी सत्ताओं के पृथक् आकर्षण से विभ्रांत नहीं होता । ये दोनों पहले यहाँ उस ज्ञानी की चेतना के अंदर परस्पर-विरोधी रूप में एक-दूसरी के सामने उपस्थित होती हैं,  एक तो जगत्-कर्म की प्रवृत्ति के रूप में तथा दूसरी आत्मा के अंदर उसकी निवृत्ति के रूप में, जब कि आत्मा कर्म में भाग नहीं लेती, क्योंकि कर्म पूर्ण रूप से प्रकृति के अज्ञान के साथ संबंध रखता है या वह उससे संबंध रखनेवाला प्रतीत होता है । या फिर वे सत्ताएँ उसकी चेतना के सम्मुख दो प्रतिद्वंद्वी सत्ताओं के रूप में उपस्थित होती हैं,  एक तो शुद्ध, अनिर्धार्य, स्थिर सनातन, स्वयं-स्थित सत् के रूप में और दूसरी असत् के रूप में, अर्थात् भ्रमजनक निर्धारण और संबंध, विचार और रूप, सतत अस्थिर भूतभाव, कर्म और विकास के तथा जन्म और मृत्यु एवं आविर्भाव और तिरोभाव के सृजनकारी एवं विनाशकारी जाल--इन सबसे युक्त संसार के रूप में । वह उनका आलिंगन करता तथा उन्हें अतिक्रांत कर जाता है, उनके विरोध का परिहार कर 'सर्वविद्', संपूर्ण ज्ञानी बन जाता है । वह आत्मा और वस्तु-समूह--दोनों का संपूर्ण आशय जान जाता है; वह भगवान् के समग्र सत्य को पुन: प्राप्त कर लेता है, 'समग्रं माम'; वह क्षर और अक्षर दोनों को पुरुषोत्तम में एकीभूत कर देता है । वह अपनी सत्ता तथा समस्त सत्ता के परम आत्मा से, अपनी शक्ति तथा सब शक्तियों के एकमात्र प्रभु से, जगत् में तथा इसके परे विद्यमान समीपस्थ और दूरस्थ सनातन से प्रेम करता, उनकी पूजा करता, उनकी शरण लेता तथा उनका भजन करता है | और,

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यह सब भी वह अपनी सत्ता के किसी एक ही पार्श्व या अंश के द्वारा, एकमात्र आध्यात्मीकृत मन,  हृदय की चौंधियानेवाली प्रखर पर संकीर्ण ज्योति या केवल कर्मगत संकल्प की अभीप्सा के द्वारा नहीं, बल्कि अपनी सत्ता एवं संभूति, अपनी आत्मा एवं प्रकृति के सभी सुप्रदीप्त साधनों के द्वारा, सर्वभाव से करता है । अपनी अविचल स्वप्रतिष्ठ सत्ता की समता में भगवत्स्वरूप होता हुआ तथा उस समता में सब पदार्थों एवं प्राणियों के साथ एकमय होता हुआ वह उस नि:सीम समता तथा गभीर एकत्व को अपने मन, हृदय, प्राण और शरीर के अंदर उतार जाता है और उसकी नींव पर दिव्य प्रेम, दिव्य कर्म एवं दिव्य ज्ञान के त्रैत को अविभाज्य एवं समग्र रूप में स्थापित करता है । गीता का मोक्ष-मार्ग यही है ।

 

और आखिर क्या यही वह सच्चा अद्वैत नहीं है जो एकमेव सनातन सत् में लेश मात्र भी भेद नहीं करता ? यह चरम-परम, भेदशून्य अद्वैतवाद एक को प्रकृति की बहुताओं में भी एक ही देखता है, यह उसे सब पहलुओं में एक ही देखता है, आत्मा तथा जगत् के सत्स्वरूप में भी वह उसे उतना ही एक देखता है जितना कि विश्वातीत के उस महत्तम सत्स्वरूप में जो आत्मा का मूल तथा जगत् का सत्य हे और जो न तो विश्व-संभूति की किसी प्रकार की सत्यता से बँधा है और न उसकी असत्यता से और न ही चरम-परम शून्यता से । कम-से-कम गीता का अद्वैत तो यही है । भगवान् गुरु अर्जुन से कहते हैं कि यह परम गुह्य शास्त्र है; यह परम ज्ञान और विज्ञान है जो हमें सत्ता के उच्चतम रहस्य के अन्तस्तल में ले जाता है । इसे पूर्ण रूप से जानने और ज्ञान, संवेदन, शक्ति एवं अनुभूति में इसे अधिकृत करने का अर्थ है-रूपांतरित बुद्धि में पूर्ण बनना, हृदय में दिव्य तृप्ति लाभ करना तथा समस्त संकल्प एवं कर्म-कलाप के परम प्रयोजन और उद्देश्य में कृतकृत्य होना । अमर होने, दिव्य पराप्रकृति की ओर ऊपर उठने तथा शाश्वत धर्म को धारण करने का यही मार्ग है ।

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